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शनिवार, 1 मार्च 2008

क्या हम आक्रामक होते जा रहे है .

आए दिन अखवारो एवं टीबी के माध्यम पढने व देखने - सुनने को मिलता है की कहीं किसी घटना के विरोध मैं चक्काजाम और तोड़फोड़ की घटना हुई । तो किसी कॉलेज मैं छात्रों द्वारा तोड़फोड़ और आगजनी घटना को अंजाम देकर विरोध प्रदर्शन किया गया। कही कन्या द्वारा मंडप मैं दुल्हे की पिटाई हुई तो कही कोर्ट के सामने अपराधी को पीटकर मौत के घाट उतार दिया गया । अभी हॉल ही मैं कोलकात्ता के असान्सोल मैं एक ड्राईवर को घायल बच्चे के परिजन ने जिंदा जला डाला । साथ ही गुडगाँव के यूरो स्कूल मैं एक छात्र द्वारा दुसरे छात्रों को गोली मार देने की सनसनी खेज घटना ने तो लोगो को सकते मैं डाल दिया है। महाराष्ट्र की घटना ने तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है की अवधारणा को ही तारतार कर दिया है।
निश्चित रूप मैं ये घटनाये हमारे आक्रामक और असंवेदनशील व्यवहार की ओर इंगित करती है वह भी राम , रहीम और गौतम बुद्ध की धरती मैं जहाँ की धर्मं और संस्कृति हमेशा दया , सहिष्णु और सहयोग की सीख देती हो। इस भौतिक विकास की होड़ मैं जैसे जैसे हम शिक्षित व सभ्य हो रहे है हम और ज्यादा आक्रामक और असहिष्णु होते जा रहे है ।
लोगो का भौतिक सुख एवं संवृद्धि को प्राप्त करने की आपाधापी (वह भी आसान व असुरक्षित साधन अपनाकर ) , धर्मं के प्रति घटती आस्था और बिखरते सामाजिक ताने बाने ऐसी स्थिति पैदा कर रहे है। वहीं वोट बैंक के लिए की जा रही राजनेताओ की कारगुजारियों ने भी इसमे घी डालने का काम किया है ।
आवश्यकता है अध्यात्म और धर्मं की और लौटने की , सामाजिक परम्परा और संस्कृति को पुनार्जीवत करने की । पश्चिमी सभ्यता से प्रेरित संस्कृति को दरकिनार करने की । शिक्षा मैं योग और धर्मं को शामिल करने की । साझा परिवार की परम्परा को अपनाने की । तभी हम सम्ब्रद्ध और सुसंस्कृत भारत की कामना कर सकते है ।

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